1 - कोई लोग भजन में रस न मिलने की शिकायत करते हैं या यह कि अंतर में उनको कुछ नहीं खुला। इसका सबब यह है कि या तो उनका मन वक्त अभ्यास के संसारी चाहों या कामों की गुनावन या ख्याल में लगा रहता है या संसारी काम या उनकी गुनावन करके अभ्यास में बैठते है या उनको जो कुछ अंतर में सुनाई या दिखाई देता है, उसकी उनको पहिचान और कदर नहीं है।
2 - जाहिर है कि जब कोई अभ्यास के वक्त दुनिया के कामों का ख्याल या तरंग उठावेगा,उस वक्त उसके मन और सुरत की धार उसकी ईन्द्रय की तरफ जारी होगी।जो कि मन से एक वक्त में एक ही काम हो हो सकता है और रस ऊपर मन को,जब तक कि उसकी धार ऊपर के चैतन्य से चढ़ कर न मिलें,क्यों कर आ सकता हैं ?
3 - जो कोई संसारी काम या उसका ख्याल करके अभ्यास में बैठता है,तो मन और सुरत उसके कामना की धार से भींगे हुए हैं और उस वक्त उनका झुकाव और ख्याल नीचे की तरफ हो रहा है तो जब तक गहरा शौक और प्रेम अंग लेकर भजन में मुतवज्जह न होगा,तब तक सुरत और मन निर्मल होकर न लगेंगे और रस नहीं आवेगा। इस सूरत में मुनासिब है कि कोई चितावनी या विरह या प्रेम के शब्द का बड़ी पोथी सार बचन नज्म से होशियारी से पाठ करे और अपने ख्याल को बदले, तो अलबत्ता कुछ रस या आनंद अभ्यास में मिल सकता है।
4 - कोई कोई शख्सों का यह हाल है कि जैसा कि उनको भेद स्थानों का मिला है, जब अभ्यास में बैठते है तो चाहते है कि पहला मुकाम तो फौरन ही खुल जावे और जो कुछ उसकी झलक दिखाई देवे तो चाहते है कि
*बराबर उनके सामने खड़ी या कायम रहे और जो आवाज उनको पहले मुकाम की सुनाई देती हैं तो उसकी जैसा कि चाहिए कदर नहीं करते।
*इस सबब से अभ्यास रूखा और फीका मालूम होता है।तीसरे तिल या सहसदलकँवल का नजर आना और उसका ठहरना आसान बात नहीं है,*
*क्योंकि यह मुकाम वैराट स्वरूप और ब्रह्मा के हैं ।ऐसी जल्दी इन मुकामों का देखना और ठहरना मुश्किल है।*
*लेकिन कभी कभी उनके स्वरूप या झलक का दिखाई देना और आवाज घंटे की सुनाई देना,यह भी बड़ा भाग है । आहिस्ता आहिस्ता आवाज भी साफ और नजदीक मालूम होती जावेगी और कभी स्थान का स्वरूप भी दिखाई देगा।*
5 - प्रेम और प्रतीत के साथ अभ्यास करते रहना मूनासिब है और समझना चाहिए कि संत मत के अभ्यास का मतलब यह है कि सुरत और मन तो पिंड में बंधे हुए है, ब्रह्मांड की तरफ और फिर उसके पार चढ़ कर पहुँचे।
जो कोई ध्यान में अपने मन और सुरत को पहले या दूसरे मुकाम पर जमावे और थोड़ी देर तक ठहरावे तो चाहे उसे कुछ नजर आवे या नहीं, सिमटाव और चढ़ाई का रस तो उसे जरूर ही मिलेगा।
इसी तरह जो ध्यान और भजन के वक्त अपने मन और सुरत को जोड़गा और जहाँ से कि आवाज आ रही है,वहाँ तक आहिस्ता -2 पहुंचावेगा तो जरूर उसको आनंद भजन का आवेगा।इस वास्ते मुनासिब है कि ध्यान और भजन के वक्त दुनिया के ख्याल छोड़ करके अपने मन और सुरत को पहले स्थान पर जमावे और जो वह उतर आवें तो वहाँ पहुँचा कर ठहरावे।इसी तरह बारम्बार करता रहे तो थोड़ा बहुत शब्द भी सुनाई देगा और रूप भी दिखाई देगा और सिमटाव और चढ़ाई का जो आनंद है, वह भी जरूर मिलेगा।
"स्वामीजी महाराज जी"
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