क्रोध में रूह फैलती है। जब क्रोध करो, आँखे लाल सुर्ख़ हो जाती हैं। रोम-रोम खड़ा हो जाता है, चेहरा और ही हो जाता है। यहाँ तक कि आदमी अक़्ल से बेबहरा हो जाता है यानी संतुलन खो बैठता है।
गुरु अर्जुन साहिब जी के समय में सुथरा नामक एक कमाई वाला ला-धड़क फ़क़ीर हुआ है। एक दिन उनके मित्र ने उनसे कहा कि एक महात्मा यहाँ आये हैं, चलो दर्शन करें। वे बोले कि चलो। दोनो उस महात्मा की कुटिया में गये और झुककर उसे प्रणाम किया। सुथरा ने कहा, हरिहर संतो। उसके उत्तर में महात्मा ने हरिहर संतो! कहकर उन्हें अपने पास बैठने को कहा।
थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुथरा ने उनसे कहा कि मुझें आग चाहिए। वह बोला कि मेरे पास नही है। कुछ देर बाद सुथरा ने फिर पूछा, आग है? जवाब मिला कि तुम्हें कहा तो है कि आग नही है। सुथरा ने फिर कहा, महात्मा जी, मुझें आग की सख्त ज़रूरत है, दे दो। इस पर चिढ़कर बोला कि तुम्हें कितनी बार कह दिया कि आग नही है। जब सुथरा ने फिर आग माँगी तो महात्मा क्रोध में आ गया और गुस्से से चिल्लाया, अरे मूर्ख! आग माँगना बंद करो। तुझें समझ नही आती कि मैंने क्या कहा है? मैं तुझें तीन बार कह चुका हूँ कि मेरे पास आग नही है। क्या यह काफी नही? क्यों बेवकूफों की तरह बार-बार वही बात दोहरा रहें हो? भाई सुथरा चुपचाप शांति से बैठे रहे।
जैसे ही महात्मा ने चिल्लाना बंद किया, भाई सुथरा ने फिर कहा, महात्मा जी, मुझे सचमुच आग की सख्त ज़रूरत है। क्या आप निश्चय से कह रहे हैं कि आपके पास आग बिल्कुल नही? इस पर महात्मा ने डंडा उठा लिया और भाई सुथरा को इतना पीटा कि डंडा टूट गया।
भाई सुथरा ने मुस्कराते हुए कहा, महात्मा जी, क्या यही मेरे प्रशन का उत्तर नही है? जब मैं आपके पास आया था तो मुझे कुछ धुँए की गंध आयी थी, इसलिए मुझे विश्वास था कि यहाँ आग भी जरूर होगी और अब तो आग की लपटें निकलने लगी हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि फिर भी आप कह रहे हैं कि आपके पास आग नही है। भाई सुथरा की बात समझ आने पर महात्मा का क्रोध जाता रहा और शर्म से सिर झुक गया। उसने नम्रता से कहा, प्रिय भाई, आपकी इस शिक्षा के लिए आपका बहुत धन्यवाद। मैं अपने आप को सुधारने का पूरा यत्न करूँगा।
अब यह समझने की बात है कि सहनशीलता किसी-किसी में ही होती है, लेकिन क्रोध की आग हरएक के अंदर होती है।
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