हमेशा की तरह सिमरन करते हुए अपने कार्य में तत्लीन रहने वाले भक्त रविदास जी आज भी अपने जूती गांठने के कार्य में ततलीन थे .
अरे, मेरी जूती थोड़ी टूट गई है इसे गाँठ दो - राह गुजरते एक पथिक ने भगत रविदास जी से थोड़ा दूर खड़े हो कर कहा.
आप कहाँ जा रहे हैं श्रीमान? भगत जी ने पथिक से पूछा .
मैं माँ गंगा स्नान करने जा रहा हूँ, तुम चमड़े का काम करने वाले क्या जानो गंगा जी के दर्शन और स्नान का महातम.
सत्य कहा श्रीमान - हम मलिन और नीच लोगो के स्पर्श से पावन गंगा भी अपवित्र हो जाएगी आप भाग्यशाली हैं जो तीर्थ स्नान को जा रहे हैं भगत जी ने कहा.
सही कहा तीर्थ स्नान और दान का बहुत महातम है ये लो अपनी मेहनत की कीमत एक कोड़ी और मेरी जूती मेरी तरफ फेंको.
आप मेरी तरफ कौड़ी को न फेंकिए ये कौड़ी आप गंगा माँ को गरीब रविदास की भेंट कह कर अर्पित कर देना.
पथिक अपने राह चला गया रविदास पुनः अपने कार्य में लग गए. अपने स्नान ध्यान के बाद जब पथिक गंगा दर्शन कर घर वापिस चलने लगा तो उसे ध्यान आया अरे उस शुद्र की कौड़ी तो गंगा जी के अर्पण की नही नाहकर, उसका भार मेरे सिर पर रह जाता.
ऐसा कह कर उसने कौड़ी निकाली और गंगा जी के तट पर खड़ा हो कर कहा हे माँ गंगा रविदास की ये भेंट स्वीकार करो. तभी गंगा जी से एक हाथ प्रगट हुआ और आवाज आई -
हक्के बक्के से खड़े पथिक ने वो कौड़ी उस हाथ पर रख दी हैरान पथिक अभी वापिस चलने को था कि पुनः उसे वही स्वर सुनाई दिया -
गंगा जी के हाथ में एक रत्न जड़ित कंगन था . हैरान पथिक वो कंगन ले कर अपने गंतव्य को चलना शुरू किया
उसके मन में ख्याल आया रविदास को क्या मालूम कि माँ गंगा ने उसके लिए कोई भेंट दी है अगर मैं ये बेशकीमती कंगन यहाँ रानी को भेंट दूँ तो राजा मुझे धन दौलत से मालामाल कर देगा.
ऐसा सोच उसने राजदरबार में जा कर वो कंगन रानी को भेंट कर दिया रानी वो कंगन देख कर बहुत खुश हुई अभी वो अपने को मिलने वाले इनाम की बात सोच ही रहा था कि रानी ने अपने दूसरे हाथ के लिए भी एक समान दूसरे कंगन की फरमाइश राजा से कर दी.
पथिक हमे इसी तरह का दूसरा कंगन चाहिए राजा बोला आप अपने राज जौहरी से ऐसा ही दूसरा कंगन बनवा लें .पथिक बोला पर इस में जड़े रत्न बहुत दुर्लभ हैं ये हमारे राजकोष में नहीं हैं अगर पथिक इस एक कंगन का निर्माता है तो दूसरा भी बना सकता है राजजोहरी ने राजा से कहा - पथिक अगर तुम ने हमें दूसरा कंगन ला कर नहीं दिया तो हम तुम्हे मृत्युदण्ड देंगे राजा गुर्राया
पथिक की आँखों से आंसू बहने लगे भगत रविदास से किया गया छल उसके प्राण लेने वाला था. पथिक ने सारा सत्य राजा को कह सुनाया और राजा से कहा केवल एक भगत रविदास जी ही हैं जो गंगा माँ से दूसरा कंगन ले कर राजा को दे सकते हैं.
राजा पथिक के साथ भगत रविदास जी के पास आया भगत जी सदा की तरह सिमरन करते हुए अपने दैनिक कार्य में तत्तलीन थे. पथिक ने दौड़ कर उनके चरण पकड़ लिए और उनसे अपने जीवन रक्षण की प्रार्थना की.
भगत रविदास जी ने राजा को निकट बुलाया और पथिक को जीवनदान देने की विनती की.
राजा ने जब पथिक के जीवन के बदले में दूसरा कंगन माँगा तो भगत रविदास जी ने अपनी नीचे बिछाई चटाई को हटा कर राजा से कहा आओ और अपना दूसरा कंगन पहचान लो.
राजा जब निकट गया तो क्या देखता है भगत जी के निकट जमीन पारदर्शी हो गई है और उस में बेशकीमती रत्न जड़ित असंख्य ही कंगन की धारा अविरल बह रही है. पथिक और राजा भगत रविदास जी के चरणों में गिर गए और उनसे क्षमा याचना की.
प्रभु के रंग में रंगे महात्मा लोग जो अपने दैनिक कार्य करते हुए भी प्रभु का नाम सिमरन करते हैं उन से पवित्र और बड़ा कोई तीर्थ नही. उन्हें तीर्थ वेद शास्त्र क्या व्यख्यान करेंगे उनका जीवन ही वेद है उनके दर्शन ही तीर्थ हैं. गुरबाणी में कथन है
अरे, मेरी जूती थोड़ी टूट गई है इसे गाँठ दो - राह गुजरते एक पथिक ने भगत रविदास जी से थोड़ा दूर खड़े हो कर कहा.
आप कहाँ जा रहे हैं श्रीमान? भगत जी ने पथिक से पूछा .
मैं माँ गंगा स्नान करने जा रहा हूँ, तुम चमड़े का काम करने वाले क्या जानो गंगा जी के दर्शन और स्नान का महातम.
सत्य कहा श्रीमान - हम मलिन और नीच लोगो के स्पर्श से पावन गंगा भी अपवित्र हो जाएगी आप भाग्यशाली हैं जो तीर्थ स्नान को जा रहे हैं भगत जी ने कहा.
सही कहा तीर्थ स्नान और दान का बहुत महातम है ये लो अपनी मेहनत की कीमत एक कोड़ी और मेरी जूती मेरी तरफ फेंको.
आप मेरी तरफ कौड़ी को न फेंकिए ये कौड़ी आप गंगा माँ को गरीब रविदास की भेंट कह कर अर्पित कर देना.
पथिक अपने राह चला गया रविदास पुनः अपने कार्य में लग गए. अपने स्नान ध्यान के बाद जब पथिक गंगा दर्शन कर घर वापिस चलने लगा तो उसे ध्यान आया अरे उस शुद्र की कौड़ी तो गंगा जी के अर्पण की नही नाहकर, उसका भार मेरे सिर पर रह जाता.
ऐसा कह कर उसने कौड़ी निकाली और गंगा जी के तट पर खड़ा हो कर कहा हे माँ गंगा रविदास की ये भेंट स्वीकार करो. तभी गंगा जी से एक हाथ प्रगट हुआ और आवाज आई -
लाओ भगत रविदास जी की भेंट मेरे हाथ पर रख दो.
हक्के बक्के से खड़े पथिक ने वो कौड़ी उस हाथ पर रख दी हैरान पथिक अभी वापिस चलने को था कि पुनः उसे वही स्वर सुनाई दिया -
पथिक ये भेंट मेरी तरफ से भगत रविदास जी को देना.
गंगा जी के हाथ में एक रत्न जड़ित कंगन था . हैरान पथिक वो कंगन ले कर अपने गंतव्य को चलना शुरू किया
उसके मन में ख्याल आया रविदास को क्या मालूम कि माँ गंगा ने उसके लिए कोई भेंट दी है अगर मैं ये बेशकीमती कंगन यहाँ रानी को भेंट दूँ तो राजा मुझे धन दौलत से मालामाल कर देगा.
ऐसा सोच उसने राजदरबार में जा कर वो कंगन रानी को भेंट कर दिया रानी वो कंगन देख कर बहुत खुश हुई अभी वो अपने को मिलने वाले इनाम की बात सोच ही रहा था कि रानी ने अपने दूसरे हाथ के लिए भी एक समान दूसरे कंगन की फरमाइश राजा से कर दी.
पथिक हमे इसी तरह का दूसरा कंगन चाहिए राजा बोला आप अपने राज जौहरी से ऐसा ही दूसरा कंगन बनवा लें .पथिक बोला पर इस में जड़े रत्न बहुत दुर्लभ हैं ये हमारे राजकोष में नहीं हैं अगर पथिक इस एक कंगन का निर्माता है तो दूसरा भी बना सकता है राजजोहरी ने राजा से कहा - पथिक अगर तुम ने हमें दूसरा कंगन ला कर नहीं दिया तो हम तुम्हे मृत्युदण्ड देंगे राजा गुर्राया
पथिक की आँखों से आंसू बहने लगे भगत रविदास से किया गया छल उसके प्राण लेने वाला था. पथिक ने सारा सत्य राजा को कह सुनाया और राजा से कहा केवल एक भगत रविदास जी ही हैं जो गंगा माँ से दूसरा कंगन ले कर राजा को दे सकते हैं.
राजा पथिक के साथ भगत रविदास जी के पास आया भगत जी सदा की तरह सिमरन करते हुए अपने दैनिक कार्य में तत्तलीन थे. पथिक ने दौड़ कर उनके चरण पकड़ लिए और उनसे अपने जीवन रक्षण की प्रार्थना की.
भगत रविदास जी ने राजा को निकट बुलाया और पथिक को जीवनदान देने की विनती की.
राजा ने जब पथिक के जीवन के बदले में दूसरा कंगन माँगा तो भगत रविदास जी ने अपनी नीचे बिछाई चटाई को हटा कर राजा से कहा आओ और अपना दूसरा कंगन पहचान लो.
राजा जब निकट गया तो क्या देखता है भगत जी के निकट जमीन पारदर्शी हो गई है और उस में बेशकीमती रत्न जड़ित असंख्य ही कंगन की धारा अविरल बह रही है. पथिक और राजा भगत रविदास जी के चरणों में गिर गए और उनसे क्षमा याचना की.
प्रभु के रंग में रंगे महात्मा लोग जो अपने दैनिक कार्य करते हुए भी प्रभु का नाम सिमरन करते हैं उन से पवित्र और बड़ा कोई तीर्थ नही. उन्हें तीर्थ वेद शास्त्र क्या व्यख्यान करेंगे उनका जीवन ही वेद है उनके दर्शन ही तीर्थ हैं. गुरबाणी में कथन है
साध की महिमा बेद न जानै
जेता सुनह तेता बख्यान्ह
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