एक राजा था। वह बहुत न्याय प्रिय तथा प्रजा वत्सल एवं धार्मिक स्वभाव का था। वह नित्य अपने इष्ट देव को बडी श्रद्धा से पूजा-पाठ ओर याद करता था। एक दिन इष्ट देव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये तथा कहा---"राजन् मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं | बोलो तुम्हारी कोई इचछा है ?"
प्रजा को चाहने वाला राजा बोला---"भगवन् मेरे पास आपका दिया सब कुछ है | आपकी कृपा से राज्य में सब प्रकार सुख-शान्ति है | फिर भी मेरी एक ईच्छा है कि जैसे आपने मुझे दर्शन देकर धन्य किया, वैसे ही मेरी सारी प्रजा को भी दर्शन दीजिये।"
"यह तो सम्भव नहीं है । " भगवान ने राजा को समझाया । परन्तु प्रजा को चाहने वाला राजा भगवान् से जिद्द् करने लगा। आखिर भगवान को अपने साधक के सामने झुकना पडा ओर वे बोले, "ठीक है, कल अपनी सारी प्रजा को उस पहाडी के पास लाना। मैं पहाडी के ऊपर से दर्शन दूँगा।"
राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ ओर भगवान को धन्यवाद दिया। अगले दिन सारे नगर मे ढिंढोरा पिटवा दिया कि कल सभी पहाड के नीचे मेरे साथ पहुँचें, वहाँ भगवान् आप सबको दर्शन देंगें ।
दूसरे दिन राजा अपने समस्त प्रजा ओर स्वजनों को साथ लेकर पहाडी की ओर चलने लगा। चलते-चलते रास्ते में एक स्थान पर तांबे के सिक्कों का पहाड देखा। प्रजा में से कुछ एक उस ओर भागने लगे। तभी ज्ञानी राजा ने सबको सर्तक किया कि कोई उस ओर ध्यान न दे, क्योंकि तुम सब भगवान से मिलने जा रहे हो, इन तांबे के सिक्कों के पीछे अपने भाग्य को लात मत मारो।
परन्तु लोभ-लालच में वशीभूत कुछ प्रजा तांबे के सिक्कों वाली पहाडी की ओर भाग गयी ओर सिक्कों की गठरी बना कर अपने घर की ओर चलने लगे। वे मन ही मन सोच रहे थे, पहले ये सिक्कों को समेट लें; भगवान से तो फिर कभी मिल लेंगे।
राजा खिन्न मन से आगे बढे। कुछ दूर चलने पर चांदी के सिक्कों का चमचमाता पहाड दिखाई दिया। इस वार भी बची हुई प्रजा में से कुछ लोग, उस ओर भागने लगे ओर चांदी के सिक्कों को गठरी बना कर अपने घर की ओर चलने लगे। उनके मन में विचार चल रहा था कि एसा मौका बार-बार नहीं मिलता है। चांदी के इतने सारे सिक्के फिर मिलें न मिलें, भगवान तो फिर कभी मिल जायेंगे |
इसी प्रकार कुछ दूर ओर चलने पर सोने के सिक्कों का पहाड नजर आया। अब तो प्रजाजनों में बचे हुये सारे लोग तथा राजा के स्वजन भी उस ओर भागने लगे। वे भी दूसरों की तरह सिक्कों की गठरी लाद कर अपने-अपने घरों की ओर चल दिये।
अब केवल राजा ओर रानी ही शेष रह गये थे। राजा रानी से कहने लगे---"देखो कितने लोभी हैं ये लोग ? भगवान से मिलने का महत्व ही नहीं जानते हैं । भगवान के सामने सारी दुनियां की दौलत क्या चीज है ?"
सही बात है | रानी ने राजा की बात का समर्थन किया ओर वह आगे बढने लगे।
कुछ दूर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगी आभा बिखरता हीरों का पहाड है | अब तो रानी से रहा नहीं गया, हीरों के आर्कषण से वह भी दौड पडी ओर हीरों की गठरी बनाने लगी । फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साडी के पल्लु में भी बांधने लगी । रानी के वस्त्र देह से अलग हो गये, परंतु हीरों की तृष्णा अभी भी नहीं मिटी। यह देख राजा को अत्यन्त ग्लानि ओर विरक्ति हुई। बडे दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गये।
वहाँ सचमुच भगवान खडे उसका इन्तजार कर रहे थे। राजा को देखते ही भगवान मुसकुराये ओर पूछा --"कहाँ है तुम्हारी प्रजा ओर तुम्हारे प्रियजन। मैं तो कब से बेकरारी से उनका इन्तजार कर रहा हुं।"
राजा ने शर्म और आत्म-ग्लानि से अपना सिर झुका दिया। तब भगवान ने राजा को समझाया -
राजन जो लोग भैतिक सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती ओर वह मेरे स्नेह तथा आर्शिवाद से भी वंचित रह जाते हैं।
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