1. 'पूर्ण महात्मा' या 'सच्चे-सँत' हमेँ परमात्मा के साथ मिलाने के लिये आते हैँ. वे इच्छाओँ से मुक्त होते हैं, और हमेँ अपने जैसा ही बना लेते हैँ ! कबीर साहिब कहते हैँ :-
"पारस मेँ और सँत मेँ,
बड़ो अँतरो जान!
वह लोहा कँचन करे,
वह कर ले आप समान!!
जो जीव 'पूरे-गुरु' की शरण मेँ आकर, प्रीति व प्रतीति से उसके दिये हुए "नाम" का लगातार अभ्यास करता है, वह 'प्रभु' से मिलकर उससे एकरुप हो जाता है. सँत, पापी और दुष्ट जीवोँ को भी सँत बना लेते हैँ.
2. सत्संगी किसे कहा जाये ?
क्या जो किसी सच्चे संत सतगुरु का सत्संग सुने उसे! या जो उन से नामदान पा ले उसे ! या उसे जो उनकी संस्था का एक अच्छा सेवादार हो!
हमें लगता है ये तीनों ही सही मायने में सत्संगी हैं!!
जी नहीं!!
सच्चा सत्संगी वही है जिसने सच्चे संत सतगुरु से नाम पाकर चाहे सत्संग सुने ना सुने, उनकी संस्था में सेवा करे न करे पर सुमिरन में पूरा समय लगाकर अपनी आत्मा को शब्द से जोड़कर मालिक से मिलाप करे , सत्य का संग है सच्चा सत्संग है. बाहर मुखी नहीं अंतर मुखी सत्संगी ही सही मायने में सत्संगी है.
3. कैसे बैठे, भजन में ?
भजन मे, उस प्रीतम की याद में ऐसे बैठना चाहिए जैसे कोई बच्चा, लाख गलती करने के बाद भी, जब घुटनों के बल बैठ कर अपनी मां की गोद मे अपना सर रख देता है। उसी प्रकार हमें भी भजन सिमरन के वक्त अपना सर 'गुरु जी' की गोद में रखते हुए दुनिया को भूल जाना है. सोचो, जब माँ उसके गुनाहो को न देखते हुए, उसे सीने से लगा लेती है। तो जब हम तीसरे तिल मे 'गुरु जी' को बिठाकर सिमरन करते हुए, अपना सिर उनकी गोद में रख देगें, तो वो क्या करेंगे, हम सोचें? मेरे सतगुरु जी', ऐसा पल हर किसी के नसीब में हो। जो तेरी याद मे रो कर, दर्शन-ऐ-दीदार करते हुए गुजरे.
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Radha soami ji
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