जब आत्मा इस संसार में आती है, तो इसे हम जीव का जन्मदिन कहते हैं. पर वास्तव में वह आत्मा, स्थूल शरीर रूपी कब्र में कैद हो जाती है. इसलिए यह कहना ज्यादा उचित होगा, कि यह जीवात्मा का मौत का दिन है.
जब जीव संतों की शरण में आता है, "नाम" प्राप्त करता है, और नाम से रिश्ता जोड़ता है, तब आत्मा, शरीर रूपी कब्र से बाहर निकलती है.
इसलिए यह कहना उचित होगा, कि संतों से "नाम की बख्शीश" पाने के बाद, उसका जन्म या पुनर्जन्म हुआ है. नाम लेने का दिन ही जीव का असली जन्मदिन है.
आपका काम आपको ही करना है. किसी और को नहीं करना. अगर 'नाम' लेकर 50 साल बैठे रहो, कुछ नहीं बनेगा. इसके विपरीत अगर नाम लेकर 8 दिन कमाई करो, तो फायदा हो जाएगा.
- हजूर महाराज सावनसिंह जी
हर एक आदमी के अंदर 'अमृत' बरसता है..! मगर यह इसकी बदनसीबी है, कि यह अंदर जाकर अमृत नहीं पीता. अगर यह एक बार अंदर जाकर उस 'अमृत' कि लज्जत ले ले, तो इसकी मुक्ति हो जाए. कितना सुन्दर उदारण देकर समझाते है हजूर - कि नाम दान प्राप्त करके सिमरन भजन नही किया और घर में गुरु की फोटो लगाकर क्या हमें मुक़्ति मिल जायेगी जी बिलकुल नही। जन्म मरणं के बंधनों से अगर आजाद होना है तो गुरु के बताऐ हुये मार्ग पर चलकर सिमरन भजन करके ही मुक्ति मिलेगी.
सतगुरु के वचनों के अंदर रहना चाहिए, और कारोबार दुनिया का भी करना चाहिए जिस वक्त फल पक जाता है, तो अपने आप ही वृक्ष से टूट जाता है। न तो फल को कोई तकलीफ होती है, न वृक्ष को तकलीफ होती है इस देह में आकर सतगुरु पूरा मिल जाए, तो सब काम पूरे हो गए यह इसका फल है। सद्गुरु के वचनों पर चलना, यह फल का पकना है जो रोज रोज जितना हो सके, भजन और सिमरन करना है, यह इस को पानी देना है। और "शब्द धुन" के साथ मिल जाना, यह इसका पककर टूट जाना है.
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