थोड़ी थोड़ी दूरी पर रुकना होता था, इस तरह यात्रा आगे बढ़ती थी. जिसमे कई अनुभवों से गुजरना होता था. एक बार तीर्थ यात्रा पर जाते लोगों का जत्था मेरे पास रुका वे साथ चलने की जिद करने लगे, मैंने अपनी असमर्थता बताई पर यात्रियों को एक कड़वा कद्दू देते हुए कहा की भाई, मै तो आप लोगो के साथ जा नहीं सकता, तो आप लोग इस कद्दू को अपने साथ ले जाइए और जहां जहां आप लोग दर्शन करें और स्नान आदि करें इसे भी करवाते लायें.
वे लोग अपने साथ कद्दू को भी यात्रा पर ले गये . वे जहां जहां भी गये कद्दू को भी स्नान और दर्शन करवाते लाये. यात्रा पूरी होने पर फिर मेरे पास पड़ाव हुआ. कद्दू मुझे वापस सौंप दिया. मैंने सभी से भोज के लिए आग्रह किया और विशेष रूप से उसी कद्दू की सब्जी बनाई गयी. सभी यात्रियों ने खाना शुरू किया और सभी ने कद्दू की सब्जी काड़वी होने की बात कही. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. यात्रियों को बताया की भाई ये तो उसी कद्दू की सब्जी बनी है जो यात्रा पूरी कर के और आप के साथ ही सब तीर्थो के स्नान और दर्शन कर के आया है. बेशक ये यात्रा से पहले कड़वा था, पर तीर्थाटन के बाद भी इसमें कड़वाहट बनी ही हुई है.
जब तक जीव अपने मन और स्वभाव को न सुधारेगा, तब तक कितनी ही यात्रा, सत्संग और दर्शन कर लो, इनका कोई अर्थ नहीं. कद्दू तो कड़वा का कड़वा ही रहेगा जी. मन तो भोला बच्चा है जी, जैसा साधोगे वैसा ही सधेगा. और जैसा सध गया, वैसा ही बन जाएगा. बदलाव हमेशा भीतर से आता है जी और वैसा ही व्यवहार में नज़र भी आता है. पर व्यवहार में बदलाव कर के भीतर मन को नहीं बदला जा सकता.
मालिक का नाम ही सच्चा तीर्थ है | मन को शुद्ध करने के लिए मालिक का नाम जरूरी है | मालिक के नाम के साथ मनुष्य सच्चा सुच्चा बनता है | जिस के साथ उसका जीवन सफल चलता है.
Jo bhi manusya satya ke shabdo ko uchit rup se sunata hai sikhata hai Tatha us par vichar karata hai uske liye hi yeah shabd sukhdai hote hai �� Hari om
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