दयाबाई सावधान करती हैं कि सतगुरु को मनुष्य-भाव से देखने और समझने की अज्ञानता नहीं करनी चाहिये । सतगुरु के शरीर की ओर नहीं, बल्कि उनके अंदर काम कर रही प्रभु की शक्ति की
ओर ध्यान देना चाहिये । केवल जड़बुद्धि जीव ही सतगुरु को मात्र शरीर समझने की भूल कर सकता है ।एक बार हुजूर महाराज जी ने भजन सिमरन के ऊपर बहुत ही अद्भुत लफ्ज़ फरमाए उन्होंने कहा जो भजन सिमरन पर बैठता है जो नियमित रूप से भजन सिमरन करता है और उनका मन भजन सिमरन में लगता भी है तो मैं उनसे बहुत खुश हूं पर जिसका मन भजन सिमरन में नहीं लगता फिर भी वह नियमित रूप से बैठता है तो मैं तो उससे बहुत ज्यादा खुश हूं विचार करें.
जिसका मन लगता है उसके लिए तो बैठना आसान है. जिसका मन नहीं लगता उसका तो रोज ही मन से झगड़ा है . रोज ही एक संघर्ष है मन के साथ कहने का भाव क्या है सतगुरु को तो हमारे संघर्ष हमारे प्रयास ही प्यारे है.
पलटू साहिब कहते है:
सन्तों की वाणी में बहुत मिठास होती है, उससे वज़्र के समान कठोर हृदय भी पिघल जाता है । उनकी रहनी, उनकी वाणी, उनके व्यवहार और उनकी मुस्कान में रूहानियत की सुगन्ध होती है । उनकी मधुर वाणी सुनने से ही नहीं, उनके दर्शन से भी दुःखी व्यक्ति के मन को शान्ति मिलती है । वह अपने हर प्रकार के कष्ट को भूल जाता है, अपनी भूख की ओर से भी उसका ध्यान एकदम हट जाता है । सन्त चन्दन और चन्द्रमा की तरह मनुष्य को ठंडक पहुँचाते हैं ।
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