शिष्य ने गुरु से पूछा - हम प्रार्थना करते हैं, तो होंठ हिलते हैं पर आपके होंठ नहीं हिलते ? आप
पत्थर की मूर्ति की तरह खडे़ हो जाते हैं आप कहते क्या है अन्दर से ?क्योंकि, अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे, तो होंठो पर थोड़ा कंपन आ ही जाता है, चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता।गुरु जी ने कहा - मैं एक बार राजधानी से गुजरा और राजमहल के सामने द्वार पर मैंने सम्राट को खडे़ देखा, और एक भिखारी को भी खडे़ देखा, वह भिखारी बस खड़ा था, फटे चीथडे़ थे उसके शरीर पर। जीर्ण - जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिनो से भोजन न मिला हो, शरीर सूख कर कांटा हो गया। बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थी, बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था ? लगता था अब गिरा -तब गिरा !
सम्राट उससे बोला - बोलो क्या चाहते हो ?
उस भिखारी ने कहा - अगर आपके द्वार पर खडे़ होने से मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं।
क्या कहना है ? और मै द्वार पर खड़ा हूं, मुझे देख लो मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है।
गुरु जी ने कहा - उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी।मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं, वह देख लेगें । मैं क्या कहूं ? अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे ? अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकते, तो मेरे शब्दों को क्या समझेंगे ?
अतः भाव व दृढ विश्वास ही सच्ची परमात्मा की याद के लक्षण है। यहाँ कुछ मांगना शेष नही रहता !आपका प्रार्थना में होना ही पर्याप्त है.
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